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यात्रा वृतांत – हास्य कथा

Shivendra Mohan Singh
Shivendra Mohan Singh
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आज कल चुनावी राजनीति की गहमा गहमी चल रही है, धड़ा धड़ राजनीतिक विषयों पे आर्टिकल पे आर्टिकल छप रहे हैं , ले तेरे की, दे तेरे की , धत तेरे की का सा वातावरण बना हुआ है। तलवारें अपने प्रतिद्वंदियों पर खिंची हुई हैं, ये अलग बात है कि भांजते भांजते कभी कभी वही तलवार खुद के तो कभी अपने ही पाले वाले का नाड़ा काट दे रही है। लेकिन बाज बहादुर फिर से नाड़े में गाँठ मार के मैदान डट जा रहे हैं और फिर से वही बतकही और जूतबाजी का दौर शुरू। एक बात बोलने की देर है दूसरा लपक के उस बात को उठा ले रहा है और बत्ती बना के वापस ?????? ???? अरे नहीं भाई …… दूसरे के फिर तीसरे के कान में डाले दे रहा है और घुमा फिरा के उस बत्ती में और बट मार के वापस बोलने वाले के ही कान में वापस दे दे रहा है, बोलने वाले को पता ही नहीं चल रहा है मेरी बोली हुई बात ही है या कोई और। मुंह बोलते बोलते भन्नाया हुआ है और कान सुनते सुनते झन्नाया हुआ है, दिमाग के १२ बजे हुए हैं,गर्मी इतनी है कि फूस कब आग पकड़ ले रहा है पता ही नहीं चल रहा है। नतीजा “कमल” फूल छाप “झाड़ू” कब “हाथ” के निशान के साथ कभी गाल पर तो कभी गर्दन पर छप जा रहा है। कहीं चल चल चल मेरे हाथी तो कहीं चांदी की साईकिल सोने की सीट का गान चल रहा है। इन्ही सब के बीच बस वाला तेज आवाज में “मुँहवा पे ओढ़ के चदरिया लहरिया लू—ट, ए राजा” का मधुर संगीत बिखेर रहा है। समझ के बाहर का जबरदस्त माहौल है।

खैर छोड़िये इन बातों को चलिए कुछ और सुनाता हूँ आपको ………………… यात्रा वृतांत

कल दीदी और छोटी बहनों के साथ कहीं जाना था, टैक्सी वाला कार लेके आ गया था एक घंटे का सफर था। लेकिन घर से निकलने में ही आधा घंटा निकल गया, कभी ये ले लो, कभी ये रख लो, कभी कुछ मिल नहीं रहा है उसका हड़कम्प। कभी उसने ये मंगाया था वो टाइम पे मिल नहीं रहा है। उसी में गरमा गर्मी , रूठना मनाना चल रहा था। खैर जैसे कैसे सफर पे निकल ही पड़े। गर्मी बहुत थी बाहर तो टैक्सी वाले को बोला की भाई एसी चला दे। वो अलग से गरम होने लगा की उसके अलग से चार्जेज लगेंगे पहले नहीं बताया था आपने ,पहले ऑफिस में बात करो। कुछ कह कुहा के उसने एसी चला दिया। “टाइम पे चलना नहीं होता है तो टाइम पे बुलाते क्यों हैं लोग” के मधुर कटाक्ष के साथ सेल्फ मारने की क्रिया आरम्भ हुई, खैर छोड़ो … चलो भाई चलो भाई के नारों के साथ यात्रा प्रारम्भ हुई।

बचपन से देख रहा हूँ जब भी कहीं जाना होता है और घर में रोड़ा ना मचे ये संभव ही नहीं है। ये सिर्फ मेरे ही घर का हाल नहीं है , लगभग सभी घरों का यही हाल है , शायद की कोई खुशकिस्मत होंगे जो बिना हल्ला गुल्ला मचाए चुप चाप चले जाते होंगे। इन्ही सब बातों में खोए मेरे जहन में कुछ पुरानी अपनी और कुछ दूसरों की बातें घूम गई, जो आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ :

​हमारे एक पारिवारिक भाई साहब अपने तीनों बच्चो के साथ कहीं जा रहे थे , बच्चे छोटे ही थे। भैया भाभी आगे बैठ गए और बच्चों को पीछे की सीट पे डंप कर दिया। बच्चों के बैठने स्थान फिक्स नहीं किया था, बस जी लड़ाई शुरू। एक लड़का और दो लड़कियां जैसा की हर घर का किस्सा है। अब शिकवा शिकायतों का दौर शुरु. ऐ पापा दे-ए-ख असुवा मार.…ता । लड़ाई की जड़ खिड़की के पास बैठने को था , बच्ची को समझा बुझा कर बीच में बैठा दिया गया और असुवा को किनारे की सीट मिल गई। नंग असुवा को कुछ ना कुछ शरारत तो करना ही था , गर्मियों के दिन थे , कार का एसी ऑन था लेकिन कूलिंग नहीं हो रही थी। ए … भाई एसिया बिगर गइल बा का। करवा तनिको ठंडात नइखे। कहले रहनी की जाए से पहिले करवा केहुके देखवा लीहा- भाभी ने कहा , बस यही महाभारत की शुरुआत थी। पलट के भैया का जवाब आया – दिमागवा दिनवा भर गरम रही त करवा कहाँ से ठंडाई। बस जी सब कुछ छोड़ के दोनों मियां बीबी एक दूसरे पे पिल पड़े पांच दस मिनट तोहार हमार, हई हऊ, एकरा ओकरा, में ही निकल गए, आपसी झगड़े में किसी ने कारण ढूंढने की कोशिश नहीं की और ऊपर से दोनों मुंह अलग से फुला के बैठ गए। खैर जैसे तैसे लड़ाई खत्म हुई तो बीच में बैठी हुई बच्ची ने बताया की असुवा ने खिड़की खोल रखी है। एहिसे करवा ठंडात नइखे। फिर क्या था भइया की मुख रुपी तोप असुवा की तरफ घूम गई। ए सोसुर तोहार दिमागवा ख़राब बा का, खिड़िकिया काहे खोलले बाड़े। एक बार तो मारने के लिए भी लपके लेकिन ये तो कहिये बाजार के बीच से जा रहे थे और रोड पर भीड़ ज्यादा थी, नजर हटी और दुर्घटना घटी वाला माहौल था और आसु बाबू बच गए। थोड़ी देर बाद जगह पा भइया फिर से लपकने की कोशिश कर थे की आसुवा को एक आध कंटाप लगा दें। लेकिन भाभी उनकी मंसा भांप चुकी थीं सो उन्होंने वहीँ बैठे बैठे धमकी भरा अल्टीमेटम सुना दिया कि ओकरा के मरनी त ठीक ना होई। अब्बे हम चलत कार से उतर जाइब। बोलते बोलते उन्होंने अपने साइड का दरवाजा भी एक बार खड़का दिया। भइया माहुर कूंच के रह गए और असुवा को परसादी देने से वंचित किये जाने का अपराधबोध लिए चुप चाप गाड़ी चलाते रहे। लेकिन गंतव्य पर पहुँचने के पश्चात् सामान इधर उधर रखने के मध्य भइया ने अपनी दबी हुई भड़ास निकालने की मंसा से “ए ससुर ठीक से उठावा” कह कर कान तो उमेठ ही दिया था असुवा का। वो भी पट्ठा गजब का तेज था कान घुमाते ही जोर से चीख बैठा, हां हां का भइल का भइल का नारा समवेत वातावरण में गूँज उठा। कूछ ना….. कूछ ना.…कह कर भइया ने बात बनाने की कोशिश की, तनी मूड़ी लड़ गइल ह केवाड़ी से कह कर बात को दबाने की कोशिश की भइया ने। भाभी असुवा के चीख मारते ही समझ गई थी कि ये हरकत क्या है। खैर एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उन्होंने बात को आगे ना बढ़ाते हुए, आवा बाबू आवा बाबू कह कर बच्चे का सर सहलाते हुए बात को वहीँ ख़त्म कर दिया।

शेष फिर कभी …… (पहली बार की लिखावट है इसलिए आप लोगों से माफ़ी की पूरी गुंजाइश है)

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